Monday, August 31, 2009

अब और कितनों की जान जाएगी ? कब नींद खुलेगी ?


एक महीने में 30 से ज्यादा लोगों की जान चली गई. मलेरिया का कहर क्या टूटा बच्चे बूढे और जवान सब इसकी चपेट में आ गए. मुंगेर के मलेरिया अधिकारी बताते हैं कि एक खतरनाक मच्छर के काटने से लोगों की मौत हो रही है. अब तक 1500 लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं. जो इलाज करने में देर करते हैं उनके बचने की उम्मीद नहीं है. अगर ये अधिकारी महोदय सिर्फ ये बताने के लिये नौकरी कर रहे हैं तो ये काम तो कोई भी कर सकता है. बदकिस्मती देखिए बीमारी फैलने के बाद हमारी व्यवस्था ऐसी लचर है कि मलेरिया को रोकने के लिये भी दिल्ली से डाक्टरों की टीम बुलाई जाती है. आठ डाक्टर आए. खड़गपुर हवेली के उन इलाकों में भी गए जहां ये बीमारी मौत का तांडव कर रही है. दिल्ली से आई टीम के सदस्यों के मुताबिक उनका काम इस बीमारी को लेकर एक रिपोर्ट दिल्ली में जमा करना है. सो ये रिपोर्ट भी जमा हो जाएगी.

मलेरिया कोई स्वाइन फ्लू तो है नहीं इसलिये इस पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा. स्वाइन फ्लू को देखिए कितनी खतरनाक बीमारी है. मरने वालों की गिनती एक से शुरु हुई तो अब हजार को छूने जा रही है. वाजिब है, इसमें मरने वाले देश के बड़े बड़े शहरों के वे लोग हैं जिनके बटुए में विदेश जाने की ताकत है. वो हवाई सफर कर विदेश से लौटे तो साथ में ये बीमारी ले आए. फिर अपने दोस्तों से मिले. विदेश जाने की ताकत रखने वालों के दोस्त भी तो पावरफुल और पैसे वाले ही होते हैं. अब इन लोगों की जान जा रही है तो देश की मीडिया सुबह सबेरे रो रही है. लेकिन खड़गपुर हवेली के गांवों में मरने वाले तो गरीब लोग थे इसलिए इसके बारे में खबरें छोटे मोटे अखबारों में ही सिमट कर रह गई.
हमारे अधिकारी, सांसद और विधायक जी भी फ्लू से बचने के लिए नाक में रुमाल लगाए घूम रहे हैं. किसी ने इन गरीब जनता के साथ हमदर्दी दिखाने की भी जहमत नहीं उठाई.

मुंगेर और इसके आसपास के इलाके में मेडिकल सेवा के नाम पर हास्पिटल तो हैं लेकिन किसी महामारी से लड़ने की ताकत इस डिपार्टमेंट में नहीं है. खड़पुर हवेली में मरने वाले लोग इस बात के गवाह हैं कि हमारा स्वास्थ्य विभाग तो सर्दी बुखार से लड़ सकता है लेकिन उससे ज्यादा कुछ भी होता है तो पूरे डिपार्टमेंट के हाथ पैर फूलने लगते हैं. हास्पिटल है लेकिन ना तो सही ढंग के वार्ड ना है ना ही बिस्तर है. ये हाल तो मुंगेर के होस्पिटल का है. ब्लाक और गांवों की हालत के बारे में कुछ ना बोलना ही ठीक ही रहेगा. वैसे मुंगेर के लोगों के लिये ये जानना भी जरूरी है कि हमारा देश और खासकर इस देश के कई ऐसे शहर हैं जो दुनिया भर में मेडिकल टूरिज्म के डेस्टिनेशन के सबसे आगे हैं. मतलब यह कि इन शहरों के हास्पिटल में अमेरिका और यूरोप से लोग इलाज करवाने आते हैं. यहां दुनिया से सबसे अव्वल तकनीक मौजूद है और वो भी सस्ते दामों में. विदेशियों की जान बचाने के लिये हमारी सरकार इन हास्पिटलों को जमीन देती है साथ ही कई तरह की छूट. लेकिन पता नहीं क्यों मुंगेर और खड़गपुर जैसे इलाकों में रहने वाले गरीब जनता पर सरकार की नजर जाती है.
हम जिस भारत में रहते हैं यहां दो भारत है. एक जिसे गरीबी लाचारी और अंधेरे में सड़ने छोड़ दिया गया है दूसरा भारत वो है जहां अमीर और शक्तिशाली रहते हैं, जहां किसी को छींक भी आ जाए तो एक मिनट के अंदर ये अहसास कर दिया जाता है कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया के किसी भी दूसरे देश से कम नहीं है.

Thursday, August 20, 2009

डकरा नाला की मौत की दास्तां

NDTV की ये रिपोर्ट अपने आप में मुंगेर के सूरतेहाल को बयान कर रही है. मीडिया ने ये दिखा कर अपना काम कर दिया. अब मुंगेर के सांसद, विधायक, अधिकारियों और बिहार के मुख्यमंत्री जी को ये सोचना है कि डकरा नाला का अब क्या किया जाए. सौ करोड़ रुपये यूं ही बर्बाद हो गए. पता नहीं इस डकरा नाला के पैसे को किसने डकारा और ना जाने कितने लोग लखपति बन गए होंगे. सरकार की इस लापरवाही का जवाबदेही किसकी है? कानून तोड़ने वालों को तो सरकार सजा देती है लेकिन उसकी धज्जियां उड़ाने वाले नेताओं और अधिकारियों को कौन पकड़ेगा ?

Wednesday, August 19, 2009

पीर नफे की मजार, मुंगेर


ये 1840 में पीर नफे मजार का नजारा है. नीचे एक कच्ची सड़क जा रही है जो सोझी घाट की तरफ के गेट से आ रही है. यहां एक बस्ती है जिसमें राजा के महल में काम करने वाले लोगों का परिवार रहता था. पीछे एक टीले पर एक बड़ा सा घर नज़र आ रहा है जिसे अंग्रेजों ने कलेक्टर की कोठी में बदल दिया. ये आज भी ये डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का घर है. कोठी के बगल में एक तालाब भी नजर आ रहा है.. जो पोलो फील्ड की शक्ल में आज मौजूद है.

कष्टहरणी घाट 1840 में भी वैसा था जैसा अब है


मीरकासिम के जमाने में कष्टहरणी घाट का नजारा कुछ ऐसा था. आज भी हमें उसकी झलक मिलती है. फर्क सिर्फ इतना है कि बबुआ घाट और कष्टहरणी घाट के बीच में आज मुंगेर जेल है. पहले यहां राजा के मुख्यलोगों का घर हुआ करता था. उन्ही में से एक घर गोइनका परिवार के पास है. 1840 की इस पेंटिंग में भी चबूतरा नजर आ रहा है जिस पर बैठकर हम बातें किया करते हैं. आजकल तो ये चबूतरा भी टूटने लगा है. अब क्या किया जा सकता है सरकार और नेताओं को तो इसकी जरा भी फिक्र नहीं है.

गंगा के उस पार से कष्टहरणी घाट का नजारा


इस पेंटिग से लगता है कि कष्टहरणी घाट पहले मीर कासिम के सैनिक इस्तेमाल करते थे. गंगा के उस पार बैठ कर बनाए गए इस पेंटिग में कष्टहरणी घाट के साथ साथ कर्णचौड़ा भी नजर आ रहा है. जहां मीरकासिम का सेनापति रहा करता था. साथ ही दाहिने तरफ जमालपुर की पहाड़ियां नजर आ रही है.. जो आज भी उसी तरह मौजूद है. चुपचाप .. मुंगेर की बदहाली पर आंसू बहा रहा होगा शायद..

1840 में मुंगेर का सोझी घाट


ये नजारा है सोझी घाट का.. 1840 के दौरान सोझी घाट पर कोलकाता और पटना से व्यापारी माल लेकर आते थे. सोझी घाट में हमेशा नावों की भीड़ होती थी. उस वक्त कोई घाट नहीं था. उस वक्त भी शायद सोझी घाट के सामने टापू बना करता होगा जहां बैठकर इस पेंटिंग को बनाया गया है. सोझी घाट के पीछे नौलखा बिल्डिंग नज़र आ रहा है. जिसमें आजकल एनसीसी का आफिस है और सेंट जेवियर्स स्कूल है. ये याद रहे कि मुंगेर इस वक्त पूरे बंगाल की राजधानी हुआ करता था.

मुंगेर के किले का नार्थ गेट


ये है किले का साउथ गेट.. सोझी धाट की तरफ वाला.. मजार की तरफ वाला.. ये उस जमाने में कुछ इस तरह दिखता था.. आज इस आलिशान गेट की जगह छोटा सा गेट बना है. इन किले को देखकर तो यही लगता है कि ये अपने जमाने का सबसे सुरक्षित किला होगा.

मुंगेर का किला



1840 में मुंगेर का किला कुछ इस तरह से दिखता था. ये मुंगेर किला का मेन दरवाजा था. जो आजकल बस स्टैंड की तरफ है. 1934 के भुकंप में ये किला पूरी तरह से ध्वस्त हो गया और उसके बाद मुंगेर के लोगों ने चंदा करके किला को फिर से बनाया. अगर आज ये किला मौजूद होता तो मुंगेर शहर की शान होता.

इतिहास के आइने में मुंगेर का किला

मुंगेर में मिट रहा है मीर कासिम का इतिहास
जिस कर्ण और मीर कासिम के चलते मुंगेर इतिहास का धनी माना जाता है, आज उसका वजूद खतरे में है. इसे संजोने के प्रति किसी का ध्यान नहीं गया. मुंगेर के सांसद रहे डीपी यादव, जयप्रकाश नारायण यादव, ब्रह्मानंद मंडल आदि आए और चले गए. कुछ की तो भारत सरकार में बड़ी भूमिका भी रही. हमारे विधायक मोनाजिर हसन मंत्री भी है और नए सांसद अनंत सिंह जीत कर दिल्ली पहुंचे हैं. देखिए वो क्या करते हैं, लेकिन
इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि पुरातत्व विभाग के जरिये मीर कासिम के सुरंग का राज लोगों के सामने उजागर करने पर किसी का ध्यान नहीं गया. ये सुरंग कष्टहरणी घाट के सामने पार्क में मौजूद हैं. ये सुरंग इतिहास का ऐसा पन्ना है जिनकी जानकारी बहुत कम लोगों को है. वो यदि पुरातत्व विभाग से इस ऐतिहासिक सुरंग की खुदाई करायी गयी होती, तो शायद यह सुरंग अबूझ पहेली नहीं होती. सुरंग कितना लंबा है और यह कहा निकला है, इसका पता नहीं है. सुरंग के निकट ही मीरकासिम के दो बच्चों की कब्र उनकी वीरता की कहानी कहा रहा है. लेकिन मुंगेर को लोग इन कहानियों को नहीं जानते हैं. इतिहास के पन्ने बताते हैं कि अंग्रेजों के भय से मीर कासिम ने इसी सुरंग से भाग कर अपनी जान बचायी थी. अंग्रेजी फौज ने उनके बेटे गुल व बेटी पनाग को घेर लिया. बताया जाता है दोनों बच्चे आत्मसमपर्ण करने के बजाय हाथ में तलवार ले अंग्रेजों से युद्ध करने निकल पड़े और शहीद हो गये. दोनों की कब्र आज भी यहां मौजूद है. मुंगेर में गंगा तट पर कष्टहरणी घाट पर स्थित इस सुरंग के बारे में लोग यह भी बताते हैं कि यह सुरंग गंगा नदी के नीचे से खोदी गयी है और भागलपुर में जाकर निकली है, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है. सुरंग के द्वार पर मजबूत दीवार है, जो इस बात की गवाही कर रही है कि समूचे सुरंग को ईट के दीवार पर रोका गया है.
सुरंग की बात जो है, वह तो है ही मीर कासिम के ऐतिहासिक किला की दीवारें भी ध्वस्त होने लगी हैं. इतिहास के प्रति मुंगेर के अधिकारियों और नेताओं को इतनी जागरूकता नहीं है कि वो किले का द्वार जहां से कभी राजा महाराजा गुजरा करते थे वहां आज खैनी की दुकानें लगी हैं. फर्जी और नकली दवाई बेचने वालों का शोरुम बन चुका है. किले की दीवार पर सटे पोस्टर्स शहर के प्रति हमारी भावना प्रदर्शित करते हैं. ऐतिहासिक धरोहर पर मार्निंग शो को पोस्टर्स लगे रहते हैं. जनप्रतिनिधि से लेकर प्रशासन तक के लोग इसे आते-जाते देखते हैं, लेकिन किसी ने टूटे दीवार के जीणोद्धार के लिए कोई प्रयास नहीं किया. वर्ष 1934 में आये भूकंप में मीरकासिम का किला ढह गया था, लेकिन उस समय के लोग अपने इतिहास को बचाने के प्रति इतने जागरुक थे कि चंदा इकट्ठा कर जैसा हो सका वैसा किला बना दिया. उस वक्त हम गुलाम थे, हम गरीब थे इसलिए जो नया किला बना वो पुराने किले की झलक मात्र भी नहीं है. उम्मीद तो ये करनी चाहिए कि हमारे किसी नेता ये कहें कि किले को फिर से उसी तरह से बनाया जाएगा जिस तरह का वो 1934 के भुकंप से पहले का था. लेकिन अफसोस, इसके ठीक विपरीत किला के ध्वस्त हुए दीवार की मरम्मत कराने पर कोई ध्यान नहीं दे रहा. पिछले कुछ दशकों में जहां दो केंद्रीय मंत्रियों ने अपना इतिहास सजोने का प्रयास नहीं किया, वहीं तीन बार सांसद रहे ब्रह्मानंद मंडल ने भी इस दिशा में कोई पहल नहीं किया. मुंगेर की जनता उन्हें उनका स्थान दिखाती है तो वो गलत नहीं करती. आज के इंटरनेट युग की कहानी ये है कि मैंने इतिहास में झांकने की कोशिश की तो ऐसी तस्वीर मिली जिससे मेरा दिमाग हिल गया. मुझे दो सौ साल पहले की पेंटिग मिली. मीर कासिम के किले की पेंटिंग. इसे किसी अंग्रेज ने पेंट किया था. ये पेंटिंग 1840 के आसपास की है. मैने उसे पेंट करने की कोशिश की है. शायद आपलोगों को पसंद आए. इन पेंटिंग को देखकर लगता है कि उस जमाने में हमारा मुंगेर कितना शानदार हुआ करता था. मुंगेर का किला देख कर सीना फूल जाता है कि यह किसी जमाने में दिल्ली के लाल किला से भी शानदार हुआ करता था. सोझी घाट से नौलखा बिल्डिंग का नजारा भी देखने लायक है. इस नौलखे बिल्डिंग में आज एनसीसी का आफिस और सेंट जेवियर स्कूल चल रहा है. बताया जाता है कि यहां मीरकासिम का मंत्री रहा करता था.
अब तो बस यही उम्मीद है कि मुंगेर के लोग ही कुछ ऐसा करें कि पुरानी रौनक वापस मिल जाए.